हाल ही में भाजपा का कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) से गठबंधन हुआ और तमिलनाडु में एआईएडीएमके से नाता टूट गया। ये सब इतनी जल्दी में हुआ कि इस पर किसी को सोचने – संभलने का मौका भी नहीं मिला । लेकिन इन सबके बीच एक सवाल सत्ता के गलियारे में तैर रहा है कि क्या तमिलनाडु में एआईएडीएमके से संबंध टूटने से केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी को कोई ख़ास फ़र्क पड़ेगा।इस सवाल की वजह ये है कि 2019 में जब औपचारिक गठबंधन हुआ उससे पहले से एआईएडीएमके का भाजपा के प्रति सहयोगात्मक रवैया जगजाहिर रहा है। ख़ासकर राज्यसभा में, जहां कुछ दिन पहले तक भाजपा का बहुमत नहीं था और बहुत ज़रूरी विधेयकों को पास करने में उसे सहयोग की ज़रूरत थी। लेकिन तमिलनाडु में गठबंधन को खटाई में डालने का काम किसी और ने नहीं बल्कि खुद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के अन्नामलाई ने किया। वो न केवल एआईएडीएमके के नेतृत्व के आलोचक थे बल्कि उन्होंने सीएन अन्नादुरै के आइकन को निशाना बनाने का एक भी मौका नहीं छोड़ा।
अन्नादुरै को द्रविड़ पार्टियों का जनक माना जाता है। एआईएडीएमके के कार्यकर्ताओं के मन में दोनों के प्रति सम्मान है और व्यावहारिक रूप से वे दोनों को पूजते हैं। राजनीतिक गलियारे में इस बात पर चर्चा तेज हो गई है कि बिना ताक़तवर केंद्रीय नेतृत्व के इशारे के, क्या गठबंधन में जूनियर पार्टनर का नेता, तमिलनाडु जैसे राज्य में ऐसे आइकन का मजाक उड़ाने की हिम्मत जुटा सकता है।दिलचस्प बात ये है कि एनडीए गठबंधन से अलग होने की घोषणा, बेजीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ एआईएडीएमके नेताओं की मीटिंग के बाद की गई।
वैसे कुछ राजनीतिक विश्लेषक बताते है कि ये गठबंधन टूटा नहीं है। ये एक रणनीतिक चाल है। ये उसी तरह है जैसे असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश में जाते हैं और मुस्लिम वोट विभाजित होता है। ये ऐसा नहीं है जैसे उद्धव ठाकरे अलग हुए हों। वे नड्डा से मिलने दिल्ली गए थे। पृष्ठभूमि बिल्कुल स्पष्ट है। अन्नामलाई तो सिर्फ बहाना हैं। लेकिन कर्नाटक में भाजपा जेडीएस के साथ गठबंधन करके अपनी 1998 और 1999 की रणनीति को ही दुहरा रही है। जेडीएस के मुखिया पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा हैं और उनके बेटे एचडी कुमारस्वामी कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं।25 साल पहले भाजपा ने रामकृष्ण हेगड़े की लोक शक्ति पार्टी के साथ गठबंधन किया था और कर्नाटक से लोकसभा में असरदार एंट्री की। सबसे अहम बात है कि कर्नाटक के चुनावी इतिहास में इन दो चुनावों को, एक जन नेता वाली स्थानीय पार्टी के वोटों का एक राष्ट्रीय पार्टी को चले जाने का एक बेहतरीन उदाहरण माना जाता है।
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— Ek Sandesh (@EkSandesh236986) October 7, 2023
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जीआरपी पुलिस ने शातिर बदमाश को पकड़ा. #UPPolice #grppolice #up #saharanpur #CMYogi #dgpup pic.twitter.com/IYPKbp4lab
इन दो चुनावों में हेगड़े ने अपने लिंगायत वोट आधार को भाजपा के हवाले कर दिया। ये दोनों दफ़े हुआ, जब वो लोक शक्ति पार्टी के नेता रहे और फिर जनता दल (यू) के नेता बने।कर्नाटक के दक्षिणी ज़िलों, जैसे कोलार, टुमाकुरु, चिक्काबालापुर, मांड्या, बेंगलुरु रूरल, चामराजनगर और हासन में भाजपा अपने पुराने प्रदर्शन को दुहराना चाहती है। इन इलाक़ों में वोक्कालिगा बहुसंख्यक हैं और ये जेडीएस का आधार क्षेत्र है।
वैसे उस गठबंधन का असर 2004 के विधानसभा चुनावों के परिणाम में दिखा। इस बार भाजपा ने तय किया है कि वो 24 लोकसभा सीटों पर लड़ेगी, यानी 2019 में जितनी सीटें जीती थीं उससे एक कम। ये बताता है कि 2023 के हालात 2019 से अलग हैं। तमिलनाडु के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष अन्नामलाई और एआईएडीएमके नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ई पलानीस्वामी के बीच खींचतान की बड़ी वजह उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बताई जाती है क्योंकि दोनों ही पश्चिमी तमिलनाडु में दबदबा रखने वाले गौंडर समुदाय से आते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक तो यह भी कहते है कि अन्नामलाई केंद्रीय नेतृत्व के चहेते इसलिए बने हुए हैं क्योंकि राज्य में उन्होंने भाजपा को चर्चा में ला दिया है। अगर दो पार्टियां आपस में वोट बांटती हैं तो डीएमके को फ़ायदा होगा। फिलहाल ये होता नहीं दिख रहा है। भाजपा के लिए तो यही बहुत है कि उसका वोटिंग प्रतिशत थोड़ा बढ़ जाए। लेकिन एआईएडीएमके और पलानीस्वामी के लिए तो सीटें जीतना ज़रूरी हैं, वरना उनके नेतृत्व को ख़तरा पैदा हो जाएगा। जानकर लोग इस नज़रिए से सहमत हैं कि चुनाव के बाद, केंद्र में भाजपा को एआईएडीएमके की ओर से हमेशा की तरह समर्थन मिल सकता है।
लेकिन आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी से उलट, पलानीस्वामी बिल्कुल अलग हैं। रेड्डी आंध्र प्रदेश में मुख्य खिलाड़ी हैं। लेकिन पलानीस्वामी के साथ तमिलनाडु में ऐसा नहीं है।एआईएडीएमके को अपनी वोट हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए गठबंधन की ज़रूरत है। साल 2021 के विधानसभा चुनाव में पलानीस्वामी ने एआईएडीएमके नीत गठबंधन की अच्छी तरह से अगुवाई की थी। गठबंधन ने जो 75 सीटें हासिल की थीं उनमें एआईएडीएमके के हिस्से 66 सीटें आई थीं।बताया जाता है कि उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की भरपाई की, जब डीएमके ने राज्य की 39 लोकसभा सीटों में 38 सीटें हासिल की थीं। तबसे न तो कोई नेता और ना ही कार्यकर्ता पार्टी छोड़ कर गया। असल में, जब गठबंधन टूटने की घोषणा हुई तो एआईएडीएमके के कार्यकर्ताओं ने खुशी मनाई। कार्यकर्ताओं का मानना है कि अन्नामलाई एआईएडीएमके की क़ीमत पर आगे बढ़ रहे हैं।
हालांकि कर्नाटक में जेडीएस के साथ गठबंधन को लेकर भाजपा प्रदेश यूनिट का रवैया अलग रहा है। कहते हैं, “साफ़ तौर पर विश्वास की कमी दिखती है क्योंकि गठबंधन का फैसला राष्ट्रीय स्तर पर हुआ जिसमें राज्य के नेतृत्व की कोई भागीदारी नहीं थी। इसे यूं कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व ने राज्य में आगे का रास्ता तय करने का अख़्तियार अपने हाथ में ले लिया।” सवाल यह भी है कि लेकिन क्या इस बार 1998 और 1999 की तरह वोटों का ट्रांसफ़र हो पाएगा?
जानकर कहते हैं, “1999 में जेडीयू के 50 प्रतिशत वोट भाजपा को चले गए और कुछ वोट कांग्रेस को गए। इस बार कितने प्रतिशत वोट बेजीपी को जाता है। दूसरा मुद्दा ये है कि हमारा अनुभव बताता है कि भाजपा के वोट उसके सहयोगियों को ट्रांसफ़र नहीं होते हैं। ये उल्टा होता है।”
वैसे इंडिया गठबंधन की ओर से नज़रअंदाज़ किए जाने के कारण ही जेडीएस ने भाजपा से हाथ मिलाया। उससे पहले एनडीए की ओर से उन्हें नज़रअंदाज़ किया गया था। उन्होंने खुद को हाशिये पर धकेले जाने का एहसास किया। उनका आधार वोट भी तेजी से घट रहा है। जेडीएस ने आरोप लगाया कि मुस्लिमों ने उसे निराश किया, इसलिए उसने भाजपा से हाथ मिलाया। लेकिन ये बात को खींचने की तरह है जैसे कि यही प्रमुख कारण रहा हो। लेकिन स्पष्ट तौर पर जेडीएस के साथ मुस्लिमों का भरोसा कम हुआ है।कर्नाटक में चुनाव बाद सीएसडीएस के एक अध्ययन की ओर इशारा किया जाता है जिसके मुताबिक़, कांग्रेस ने मुस्लिमों का 55 से 77 प्रतिशत वोट हासिल किया, भाजपा ने 10 प्रतिशत लेकिन जेडीएस को मुस्लिमों का 20 प्रतिशत ही वोट मिल सका। कहते हैं कर्नाटक में अभी तक ढाई पार्टी सिस्टम था लेकिन हो सकता है कि अब ये दो पार्टी सिस्टम हो जाए।
द्रमुक की भविष्य की रणनीति को लेकर विशलेषकों का यह भी मानना है कि कर्नाटक में असफल प्रयोग के बाद द्रमुक भाजपा के हिंदुत्व के खिलाफ अपना हमला जारी रख सकती है और यह भाजपा का एक मजबूत हथियार है जिसे अतीत में देखा गया है। जब ओ।पी।एस। को भगवा पार्टी के अभिन्न अंग के रूप में पेश किया गया था। द्रमुक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ई।पी।एस। की लगातार मुलाकातों का भी फायदा उठाया और उन्हें करीबी सहयोगी करार दिया। द्रमुक 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा विरोधी बयानों पर भरोसा कर सकती है। कई भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल भगवा पार्टी पर अपने लिए जगह बनाने के लिए गठबंधन सहयोगियों को खा जाने का आरोप लगाते रहे हैं। ट्रैक रिकार्ड्स से पता चलता है कि द्रमुक और अन्नाद्रमुक दोनों ने अलग-अलग मौकों पर भाजपा को पैर जमाने में मदद की लेकिन 2001 के बाद से द्रमुक ने भाजपा से मुंह मोड़ लिया है जबकि अन्नाद्रमुक ने अब ऐसा किया है जिससे उसकी महत्वाकांक्षा को झटका लगा है। हालांकि केंद्रीय नेता अभी भी गठबंधन को पुन:जीवित करने के लिए अन्नाद्रमुक को मनाने की कोशिश कर सकते हैं।